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*त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में प्रत्याशी खुलेआम बाँट रहे पैसा, साड़ी, मुर्गा और दारू*

 


 *त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में प्रत्याशी खुलेआम बाँट रहे पैसा, साड़ी, मुर्गा और दारू*


*जिला पंचायत क्षेत्र क्रमांक 10 में सबसे ज्यादा वोट की खरीदी फरोख्त की कोशिस की जा रही*


छत्तीसगढ़ परिदर्शन -बलौदाबाजार।

प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का प्रथम चरण सम्पन्न हो चूका है तों वही द्वितीय एवं तृतीय चरण का मतदान क्रमशः 20 फ़रवरी तथा 23 फ़रवरी कों होना है। इसी बीच बलौदाबाजार जिला में लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली बातें सामने आ रही है। जहाँ पर प्रत्याशियों द्वारा खुलेआम पैसा,दारू,मुर्गा,साड़ी इत्यादि बाँटक़र वोट खरीदने की कोशिश की जा रही है। सबसे ज्यादा शिकायत बलौदाबाजार के जिला पंचायत क्षेत्र क्रमांक 10 में देखने कों मिल रहा है , जहाँ पर विभिन्न प्रत्याशियों के बीच चुनाव के बजाय पैसे, साड़ी, मुर्गा और दारू बाँटने की प्रतिस्पर्धा चल रही है । चुनावी आचार संहिता लागू होने के बावजूद प्रशासन की इस पर चुप्पी ने जनता को निराश कर दिया है। मतदान तिथि जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, प्रत्याशी मतदाताओं को तरह-तरह के प्रलोभन देकर लुभाने में जुटे हैं। स्थानीय लोगों के बताये अनुसार, खुलेआम दिन में ही जिला पंचायत सदस्य प्रत्याशी के एजेंट द्वारा गाँवों में जाकर नकद पैसे, साड़ी और शराब जमकर बाँटा जा रहा हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव। यह प्रणाली जनता को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार देती है, जिससे शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बनी रहती है। लेकिन क्षेत्र में वोट की खरीद-फरोख्त करके लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर सीधा हमला किया जा रहा है।


*लोकतंत्र के लिए घातक है यह खेल*


यदि यही सिलसिला जारी रहा, तो लोकतंत्र का मूल सिद्धांत—"जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन"—अपनी सच्ची भावना में समाप्त हो सकता है। क्योंकि मतदाता जिन नेताओं को केवल पैसों के कारण चुनते हैं, वे बाद में जनता की भलाई की बजाय अपनी जेबें भरने और अगले चुनाव की तैयारी में जुट जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जनता फिर से बुनियादी सुविधाओं से वंचित रह जाती है और भ्रष्टाचार का चक्र चलता रहता है। पैसों बाँटों चुनाव जीतों जैसी घटनाएँ लोकतंत्र के लिए बेहद घातक हैं। यदि वोट खरीदे जाएँगे, तो जनता की भलाई के लिए काम करने वाले ईमानदार प्रत्याशियों को कभी जीतने का मौका नहीं मिलेगा। इसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार बढ़ेगा और विकास कार्यों में रुकावट आएगी।


*गरीब और ईमानदार उम्मीदवारों के लिए बाधा*


जो उम्मीदवार ईमानदारी से विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, उनके लिए यह माहौल मुश्किल होता जा रहा है। आमतौर पर धनबल और जातिगत समीकरणों से दूर रहने वाले गरीब प्रत्याशी मतदाताओं को खरीदने की इस दौड़ में पीछे छूट जाते हैं। नतीजतन, समाज में बदलाव लाने की सोच रखने वाले उम्मीदवारों के जीतने की संभावना कम हो जाती है। क्योंकि अगर चुनाव जीतने के लिए पैसे ही सबसे बड़ा हथियार बन जाए, तो गरीब लेकिन योग्य और ईमानदार उम्मीदवार कभी चुनाव नहीं जीत पाएंगे। इससे राजनीति केवल धनवान और शक्तिशाली लोगों तक सीमित रह जाएगी, और आम जनता की आवाज़ दबकर रह जाएगी।



*बड़ी विडंबना है कि पैसा चुनाव का पर्याय बनता जा रहा*

चुनाव के समय मतदाताओं को लुभाने के लिए नकद राशि, शराब, साड़ी, मोबाइल फोन, और यहाँ तक कि महंगे गिफ्ट बाँटना आम होता जा रहा है। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को प्रभावित कर रही है। जनता के मूलभूत मुद्दों—रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढांचे—की बजाय चुनावी एजेंडा अब व्यक्तिगत लाभ तक सीमित हो गया है

क्षेत्र में चुनावी माहौल के साथ ही एक नई लेकिन खतरनाक परंपरा जोर पकड़ रही है—"पैसे बाँटो, चुनाव जीतो।" राजनीति में धनबल और बाहुबल का प्रभाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में मतदाताओं को सीधे पैसे और उपहार बाँटने की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ी है। यह न केवल लोकतंत्र की मूल भावना को चोट पहुँचाता है बल्कि ईमानदार और विकास की सोच रखने वाले गरीब उम्मीदवारों के लिए राजनीति के दरवाजे बंद कर देता है।


*भ्रष्टाचार को बढ़ावा,लोकतंत्र का पतन*


मतदाताओं कों यह बात समझना बहुत ही जरुरी है कि वोट खरीदकर सत्ता में आने वाले नेता सबसे पहले अपने चुनावी खर्च को वसूलने में लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार बढ़ता है, घोटाले होते हैं और विकास के नाम पर जनता को ठगा जाता है। सरकारी ठेकों से लेकर नियुक्तियों तक, हर जगह पैसों का खेल शुरू हो जाता है। अगर यह प्रवृत्ति नहीं रोकी गई, तो धीरे-धीरे लोकतंत्र नाम मात्र का रह जाएगा। जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता असल में किसी विशेष वर्ग या उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करने लगेंगे। नीतियाँ जनता की भलाई के लिए नहीं, बल्कि उनके चुनावी खर्च की भरपाई करने के लिए बनाई जाएंगी।


*लोकतंत्र का मूल उद्देश्य बाधित*


वोट का अर्थ केवल एक बटन दबाना या एक पर्ची डालना नहीं है, बल्कि यह भविष्य तय करने का एक महत्वपूर्ण अधिकार है। जब यह अधिकार पैसों, शराब, उपहारों या अन्य लालच देकर खरीदा जाता है, तो जनता की वास्तविक इच्छाओं की अनदेखी हो जाती है और सत्ता गलत हाथों में चली जाती है। इससे एक ऐसा राजनीतिक तंत्र विकसित होता है जो जनता की सेवा करने के बजाय अपने निवेश का लाभ उठाने में जुट जाता है। इसलिए पैसे उपहार इत्यादि बाटने कि प्रवृत्ति पर अभी रोक नहीं लगाई गई, तो आने वाले वर्षों में लोकतंत्र केवल अमीरों का खेल बनकर रह जाएगा, और आम जनता की समस्याएँ जस की तस बनी रहेंगी। वक्त आ गया है कि मतदाता जागरूक बनें और सही नेताओं को चुनकर लोकतंत्र की असली ताकत को बरकरार रखें।


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